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फिर मिलते हैं...

चलो ज़िन्दगी से दरख्वास्त की जाए
जगते रहने की इजाज़त दे मुक़म्मल नींद से पहले।

शुभ रात्रि

बराबरी का समीकरण

हर वर्ष
'महिला दिवस'
मनाया जाता है
कहीं ये सोचकर
पुरुष अपनी कॉलर
ऊंची तो नहीं करते
कि साल के 364 दिन
तो उनके ही हैं,
आगे से एक दिन
'पुरुष दिवस'
भी होना चाहिए
ताकि
बराबरी का समीकरण
बना रहे।

प्रेम: कल्पनीय अमरबेल.....तृतीय अंक


गतांक से आगे...


"और बताओ...कहाँ हो??" उफ्फ 11 दिन 22 घण्टे 44 मिनट बाद आज इनका फोन आया। मैं खुशी से रुआंसी हो गयी। पूरे 56 सेकण्ड्स तक ब्लैंक कॉल चलती रही। मैं इनका अपने पास होना फील कर रही थी...
"कुछ बोलोगी भी या नहीं?" इन्होंने तंज भरे शब्दों में बोला। मुझे तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि शुरू कहाँ से करूँ। कैसे कहूँ कि ये दिन कैसे बीते, मैं तो तुम्हारी आवाज़ सुने बग़ैर दिन का एक पहर नहीं जाने देती हूँ और तुमने इतने दिन निकाल दिए। एक बार भी न सोचा कि इस वक़्त मुझे तुम्हारे साथ की बहुत जरूरत है। प्रेम ही तो वो सम्बल होता है जो इंसान को हर भंवर से पार ले जाता है। मैं चाहती तो आज तुम्हारे इस कटु प्रश्न का उत्तर देती पर मैं कमज़ोर हूँ ज़िन्दगी, सिर्फ तुम्हारे लिए और तुम हो कि मुझे मेरे जैसा कभी समझते ही नहीं। शिकायतें बहुत हैं पर मेरा बेपनाह प्यार काफी है मुझे समझाने के लिए। किसी भी तरह से तुम्हारी उपस्थिति बनी रहे, तुम खुश रहो, मैं हर दर्द झेल लूँगी। 
"बात नहीं करनी है न, फोन रखूँ.."
"नहीं वो बात नहीं है...अच्छा तुम कैसे हो"
"मुझे क्या हुआ, बिल्कुल ठीक हूँ"
"ह्म्म्म, गुड हमेशा ऐसे ही रहो।"
"अब तुम्हारा दर्द कैसा है?"
"ठीक" सच ही कहा था मैंने बस एक फ़ोन कॉल और मेरा दर्द सचमुच ग़ायबतुम भी क्या जादू कर देते हो।
"और बताओ, क्या चल रहा है..." कैसे प्रश्न पूछते हो तुम भी, तुम्हारे बग़ैर तो सांस भी रुकने लगती है फिर कुछ और चलने का तो कोई सवाल ही नहीं। मैं इस उलझन में थी कि तुम कुछ बोलते और मैं बेताब सी सुनती तुम्हारी बातें जैसे खूंटी पर टांग दी हो सारी उलझनें। फोन पर मैं तुम्हारे साँसों की हरारत महसूस कर रही थी।मेरी याद तुम्हारी आँखों की सुर्ख धारियों में जाकर टंग गयी थी कि काम के बोझ में हंसना-बोलना भूल गए हो। होंठ भी तो ज़र्द पड़ गए हैं और तुम्हारे हाथों की नाजुक सी उंगलियां गर्म अहसास की छुअन से महरूम हैं। थक जाते होंगे न दिन भर व्यस्तता से दौड़ते पाँवमन करता है अभी तुम्हें सीने में छुपा लें। कितने बावले हो खुद का भी ध्यान नहीं रखते....
"क्या खाया सुबह से अब तक?"
"अगर नहीं खाया होगा तो खिलाओगी क्या?"
"नहीं बाबा, वो बात नहीं..." कैसे कहूँ कि जब तक तुम नहीं खाते मेरे लिए अन्न का एक दाना भी दुश्वार है। कितने-कितने पहर उपवास में निकल जाते हैं कभी ये सोचकर कि तुम भूखे होगे अभी और कभी तो तुम्हारी इतनी याद आती है कि भूख ही नहीं लगती।
"अच्छा सुनो, मुझे कहीं निकलना है। फिर बात करता हूँ।"
"ये तो कोई बात नहीं होती, प्लीज बात करो न थोड़ी देर। मैं रोने लगूँगी..."
"अरे नहीं, ऐसा नहीं है। देखो अगर बात नहीं करनी होती तो मैंने कॉल क्यों की होती। रात में बात करता हूँ, बाय।"
मेरे कुछ बोलने से पहले ही फोन डिसकनेक्ट हो गया। मेरी आँखों की कोरों से निकलकर दो आँसूं गाल पर लुढ़क आये थे। एक आँख खुशी में रोयी कि इतने दिनों के बाद आज मेरे मन ने तुम्हें महसूसा था और दूसरी सचमुच उदास थी कि इतनी जल्दी चले गए। 
कितना एकाकी कर जाते हो तुम मुझे। बस तुम तक सिमटी लगती है ये दुनिया। तुम्हारे लिए मेरे प्रेम की हद कहाँ तक है अब तो ये सोचना भी छोड़ दिया। मुझे तुम्हारे लिए जीवन भर बाती बनकर जलना मंजूर है बस तुम्हारे रास्ते उजालों से भरे रहें। जितना मेरा हर पल तुम्हें समर्पित है उतना ही मेरा कल भी। मैं हर जनम अपना आँचल तुम्हारे पाँव के नीचे बिछाऊंगी और अपने हाथों से छाँव दूँगी।

कहानी आगे भी जारी रहेगी...

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दर्द का हर डंक

दर्द का पर्यायवाची बन गया ये जीवन
और हर पर्याय पर
भिनभिना रही हैं मधुमक्खियां
कि हर आहट पर
डंक मारने को आतुर,
बेतरतीब सी दौड़ती जा रही हैं
हज़ारों गाड़ियां सड़क पर
इनके नीचे कुचला जा रहा है
सीधा-सादा मानव
कोरताल की सड़कों पर
लाली बिखेरता हुआ,
जाने कितने घरों का
सूरज अस्त हो रहा है
क्या फर्क पड़ेगा उन बेवा माओं को
जो हर शाम हथेलियों की थपकी से
बनाती थी तीन रोटियां
खुद डाइटिंग करती थी
अपने बेटे का पेट भरने को,
किसी तरह अपने जिस्म को ढकती थी
अधखुले कपड़ों में
उसे फैशन का नंगा नाच नहीं पता
पर सभ्यता का डंक सालता था हर वक़्त,
कूप-मण्डूक हो गयी हैं वो
सिमट जाती है उनकी उदासी कोठरी में
जहाँ दिन का सूरज तो किसी तरह
छन कर पहुँच जाता है
पर नहीं जलने देता है रात का दिया
दर्द का हर डंक;
हम सब भी मूंद लेते हैं आँखे
थक चुके होते हैं इतना दर्द देखकर
फिर एक दिन
हमारी आत्मा चीखती है
उस बेवा की लाश की सड़ांध पर।

उदासी के नाम चन्द शेर

आज मुझे कोई गुज़रा जमाना नहीं याद,
गुज़र जाए मेरा आज बस यही फरियाद

हद से गुज़र जाए गर दर्द, तसल्ली कहाँ
सायबां न कोई, दर्द ही बन गयी है दुआ

उदासी से भर जाती है उसके पाजेब की रुनझुन,
गर देखा कोई शहीद-ए-वतन तोपों की सलामी पे।

सर्द रातें हैं, चाँद की आँखों में नमी है
तेरे याद की शाम ढल चुकी है कहीं।

अख़बार श्वेत-श्याम की नुमाइंदगी भर है
खूनी हर खबर है पन्नों के बीच लिपटी।

मैं लखनऊ हूँ...

हर अदा में हमारी, इस शहर का मिजाज़ है,
हर सल्तनत के सर पे सादगी का हिजाब है,
नफ़ासत के साथ यहाँ मौशिकी भी रहती है,
तहज़ीब से तराशा ये लखनऊ लाजवाब है।
















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उनके हवाले कर दिया हमने तुमको
जो हमसे ज़्यादा अजीज़ थे
शिकायतें अब तो और भी बढ़ गयीं
ये हक़ है तुम्हारा या मेरे चाहने की शिद्दत?

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php