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ख़ुदा हाफ़िज़

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ज़िन्दगी चाहती है एक बदलाव मुक़म्मल
गर खो जायें तो अब इंतज़ार मत करना।



रेत के घरौंदों सी ढह गयीं ख्वाहिशों की इमारतें
दर्द मुक़द्दस तू कहीं खुद में समा ले मुझको।



तू गया औ जीने का सामान भी ले गया
रुक ये कलम ये सियाही तो मुझे दे दे।

मैंने लिखना छोड़ दिया है

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तुम्हारी मुस्कराहटों के नाम 
वो जो रक्तिम अक्षर थे 
आखिरी थे मेरी कलम से
तोड़ दिया अग्र भाग
कि ये विवश हो जाये,
अब नहीं होगी न, वो स्याही
जो तुम 
अपनी देह की ऊष्मा पिघलाकर
दिया करती थीं,
तुम्हारी झनकार लय थी
मेरे गीत का
सुलझाते हुए तुम्हारे अलकों को
शब्द बिखरते थे हर पन्ने पर
जब झुकाती थीं तुम पलकें
माधुर्य सिमट आता था कविता में;
न भी होती थीं तो
मुझमें छुपी होती थीं
तुम तो चुरा ले गईं खुद को मुझसे
अब कहाँ से लाऊँ वो रस
मैंने लिखना छोड़ दिया है
क्योंकि
रूठे हुए मीत को मनाऊँ कैसे
बिन मीत गीतों में रस लाऊँ कैसे

मैं मृत्यु हूँ...

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कोई भी मुझे जीत नहीं सकता 
मैं अविजित हूँ,
गांडीव, सुदर्शन, ब्रह्मास्त्र हो या
ए के-47...56
इनकी गांधारी हूँ मैं,
समता-ममता, गरिमा-उपमा
मद, मोह, लोभ-लालच,
ईर्ष्या, तृष्णा, दया,
शांति...आदि 
सभी उपमाओं से परे हूँ;
मेरा वास हर जीवन में है
जन्म के समय से पहले ही
मेरा निर्धारण हो जाता है
बूढ़ा, बच्चा और जवान 
मैं कुछ भी नहीं देखती
क्योंकि मैं निर्लज्ज हूँ;
गरीबी-अमीरी कुछ भी नहीं है
मेरे लिए,
दिन क्या रात क्या,
झोपड़ी, महल और भवन
इनके अंदर साँसे लेता जीवन
मेरी दस्तक से ओढ़ता है कफन
इमारतें हो जाती हैं बियाबान
मंजिल है हर किसी की
बस शमशान;

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..........
अगर नहीं किया मेरा वरण
तो कैसे समझोगे प्रकृति का नियम
बिना पतझड़
कैसे होगा बसंत का आगमन,
पार्थ को रणक्षेत्र में
मिला है यही ज्ञान
मौत से निष्ठुर बनो
न हो संवेदनाओं का घमासान
गर डरो तो बस इतना कि 
मैं आऊँ तो मुस्करा कर मिलना
अभी और जीना है
अच्छे कर्म करने को
ये पश्चाताप मन में न रखना,
मेरा आना अवश्यम्भावी है
मैं कोई अवसर भी नहीं देती,
दबे पाँव, बिन बुलाए
आ ही जाऊंगी
करना ही होगा मेरा वरण
फिर क्यों नहीं सुधारते ये जीवन
पूर्णता तो कभी नहीं आती
अंतिम इच्छा हर व्यक्ति की
धरी ही रह जाती है,
पूरी करते जाओ
अंतिम से पहले की हर इच्छाएं,
ध्यान रखो 
औरों की भी अपेक्षाएं:
मैं तो आज तक
वो चेहरा ढूंढ रही हूँ
जिसके माथे पर
मेरे डर की सिलवटें न हों,
जिसके मन में
'कुछ पल और' जीने की
इच्छा न हो!

माँ शारदे...

माँ शारदे!
स्नेह से तार दे
   मेरी कलम में वो
     रोशनाई तू दे कि जो
       मन की परिभाषा मैं कह दूं
     वो भावों का संगीत हो
    हो तेरी वीणा मधुर
   शब्द मेरे रचे हों
गीत तेरा अमर!

A letter to those who write ingrezi

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हमारे deer मित्रों
एक अनुभव से गुजरे हम
बीते दिनों,
फ़ेसबुक की timeline पर
अचानक एक फोटू आया
हार पहने हुए व्यक्ति
हमसे टकराया;
हमने आँखे बंद कर
दो मिनट तो नहीं
पूरे दो सेकण्ड का ध्यान लगाया
इस तसल्ली पे आँखे खोली
जब वो बोले अब मैं शान्ति पाया,
नीचे लिखे कमेंट बॉक्स को पढ़कर
सर चकराया
तब समझ आया
क्यों अब वो शांति पाया;
कमेंट बॉक्स में कुछ यूँ लिखा था
Rest in piece
क्या dye आत्मा को
शांति टुकड़ों में मिलेगी?
हे मित्रों
हिंदी बुरी नही है
अँग्रेजी आने से ज़्यादा जरूरी है
अच्छा इंसान होना
हो सुख बांटने को अपना
और ग़मों में पहचान होना,
भाषा से बड़ा भाव होता है
गर व्यक्त न कर सको खुद को सही
तो अपनेपन का अभाव होता है,
ये कविता तो बस हमारे
Deer मित्रों के लिए है,
दिल पे मत लेना जानी
हिंदी तो हमें भी नहीं आती
अंग्रेजी समझने को तरसते हैं।

ज़िन्दगी, तुम्हारे लिए!

बस इतनी सी ख्वाहिश थी मेरी
तुम सबकी खुशी में शामिल रहो
मग़र ए ज़िन्दगी!
तुम्हारी खुशी तो
मेरी मय्यत पर भी
मुकम्मल नहीं,
अब क्या करूँ इस रूह का
जो जनाज़े को तरसती है
सुबह कर दो मेरे ग़मों की
मेरी रूह को अफज़ा कर दो.

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php