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अधखुले पन्ने


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 हमारी ख्वाहिशों के अधखुले पन्ने,
अधूरेपन की बेबाक बातें,
कहने को तो बहुत कुछ
उमग रहा मन में,
पर तुम तो निस्तेज हो गए
अपनी बातों के जैसे,
कौन सुनेगा हमें,
मौन सन्नाटों के सिवा।
तुम्हारी यादें समय को
ऐसे रीत रही हैं
जैसे रात का पूरा
स्वेटर ही बुन देंगी,
सुबह की धूप जब खिड़की खोलेगी,
हम भी तो होंगे वहां
तुम्हारी मुस्कान का टीका करने को,
आओगे न तुम?
तुम्हें आना ही होगा
चाहे दिन से मिलने रात न आये,
रात में तारों की बारात न आये,
तुम हो तो सुबह क्या शाम क्या!
तुम हो तो मौशिकी क्या जाम क्या!

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