To explore the words.... I am a simple but unique imaginative person cum personality. Love to talk to others who need me. No synonym for life and love are available in my dictionary. I try to feel the breath of nature at the very own moment when alive. Death is unavailable in this universe because we grave only body not our soul. It is eternal. abhi.abhilasha86@gmail.com... You may reach to me anytime.
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सज़ायाफ़्ता स्त्री
स्त्री हूँ मैं
स्वाभिमान की पराकाष्ठा तक जाती हूँ,
प्रेम करती हूँ वो भी प्रगाढ़
खुद को मारकर
तुम्हें अपने अंदर जीती हूँ,
मेरी देह का स्वाद इतना भी सस्ता नहीं
कि जब जरूरत हो तब याद आऊँ
शेष पल प्रेमहीन जियूँ,
क्यों मिल रही है मुझे
ये धिक्कार, वेदना और तड़प
.......…..…..………
वर्जित था अति प्रेम
इस खोखले पुरुष समाज में,
झुक जाता है उनका पुरुषत्व
प्रेम का मान देने में
...शायद तभी मैं बन गई हूँ
एक सज़ायाफ़्ता स्त्री...
नारीत्व मेरा अहम है
कभी सिर उठाने की कोशिश करती
तो ये कहकर रोक दिया जाता
लड़की हो तुम
चार लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे
फिर भी बेहया समाज से
मुझ अकेले को ही लड़ना पड़ता,
अब मैं बड़ी हो गयी हूँ
मेरे अंदर भी आठ लोग बोलते हैं
भेज दी उस कोमला की मृत देह
उन चार लोगों के काँधों पर
अब मैं काया विहीन
जुल्म के ख़िलाफ़ तांडव करती
एक आत्मा भर हूँ
मेरे नारीत्व को
चुनौती देने की भूल मत करना
यही तो मेरा अहम है,
गर साधारण औरत समझो मुझे
तो ये तुम्हारा वहम है।
बराबरी का समीकरण
हर वर्ष
'महिला दिवस'
मनाया जाता है
कहीं ये सोचकर
पुरुष अपनी कॉलर
ऊंची तो नहीं करते
कि साल के 364 दिन
तो उनके ही हैं,
आगे से एक दिन
'पुरुष दिवस'
भी होना चाहिए
ताकि
बराबरी का समीकरण
बना रहे।
मत छोड़ मुझे ज़िंदा!!!
क्या संभव है?
मुझे स्त्री ही बने रहने दो!
और जीना चाहती हूँ
अपने स्वतन्त्र अस्तित्व के साथ;
क्यों करूँ मैं बराबरी पुरुष की,
किस मायने में वो श्रेष्ट
और मैं तुच्छ!
वो वो है
तो मैं भी मैं हूँ,
ये मेरा अहम नहीं
मुझे मेरे जैसा
देखने की तीक्ष्णता है
स्वीकारते हो न,
मैं और तुम
ये दो पहिये हैं हम के;
अगर तुम्हारे बेरिंग घिस रहे जीवनपर्यंत
तो मेरे कौन सा
गुणवत्ता की कसौटी से परे हैं,
इन्हें श्रेष्ठता के तराजू में
नहीं तोलना है मुझे,
ये तो ज़िन्दगी के कोल्हू में
पहले से मंझे हुए हैं;
एक द्वंद जो चल रहा मैं के भीतर
उसका समूल विनाश ही तो बनाएगा
हम का संतुलन:
मैं तुच्छ नहीं
वही तो है इस सृष्टि की सृजक
और तुम पालक हो इस सत्ता के
तभी तो हम से सन्तुलन है,
और अहम विनाश की
व्यापक स्वरूपता।
स्त्री या सुनामी!
घुँघरू की ताल पर नाचती हुई
सबके लिए फिक्रमंद
जरूरतों के मुताबिक
थोड़ा-थोड़ा जीती हो,
कभी घर के हिसाब में,
कभी बच्चों की तकरार में,
कभी माँ-बाबूजी की अवस्था
को समझने में
खुद भी उलझ जाती हो,
घर के राशन से दवाई तक
रिश्ते-नातों से लेकर
बच्चों की पढ़ाई तक,
समाज, घराना, मित्र व्यवहार
सबमें इतनी सजग
जैसे समर्पण की देवी हो,
सबको अपना बना लेती हो,
हथेलियों से छांव करने को आतुर,
बस नेह के लिए बनी हो,
चेहरे पर बसी पुरकशिश मुस्कान
सारे रहस्य छुपा लेती है,
कभी तो थकती होगी,
कुछ तो दुखता होगा,
कोई तो शिकायत होगी,
कितनी सहजता से पीती हो
दर्द का विष
जैसे योगी ने हिमालय पे पिया था;
हजार आशनाओ में लिपटी वो मादकता,
आज भी यौवन की हथेली पर
ओस की बूँद सी दिखती है:
दिन की टिक-टिक पर थिरक कर भी
ऐसे सजाती हो मेरी रातों को
कि हर रात निखर जाती है
सुहागरात में;
तुम्हारी हर छुअन पहले स्पर्श जैसी,
वही कोमलता
जो रग-रग में स्रावित होती है,
मेरे हर आग्रह पर आज भी
उतनी ही समर्पित
तुम्हारा उद्वेग
मेरे आवेश को समा लेता है,
तुम जीती रहती हो मुझे बूँद-बूँद
मेरे स्खलित होने तक;
मैं निढ़ाल हो जाता हूँ
तुम फिर भी सजग रहती हो
जीवन के जतन में,
जितना मैं दिन और रात में जीता हूँ,
तुम जीती रहती हो पल-पल,
रात्रि की कोमलांगना
दिन की अष्टभुजी बन जाती हो,
वाह, क्या बात है तुममें
स्त्री हो या सुनामी!
जहाँ भी रहती हो,
लहरों की तरह
बस तुम ही तुम रहती हो।
मेरी पहली पुस्तक
http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php
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स्वयं के अन्तस् रावण अटल घात लगाए स्वयं की हर पल मुझको दर्पण बन, जो मिला वही विजित है मेरा स्वर कल नयन में राम तो पग में शूल हैं हर शबरी के ...
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नदी दीदी, नदी दीदी कहीं टेढ़ी, कहीं सीधी तुम तो हो बड़ी ज़िद्दी नदी दीदी, नदी दीदी दुनिया भर की करती सैर थकते नहीं हैं तुम्हारे पैर तुम तो हो...